होली का तांत्रिक महत्व
सिद्धि का महापर्व है होली
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बद्री पाठक लौकिक व्यवहार में प्रमुख भाईचारे का प्रतीक भारतीय पर्व होली की तैयारी यूं तो एक पखवाड़े पहले से ही शुरू हो जाती हैं, लेकिन माना जाता है कि यह पर्व होलिका दहन से रंगपंचमी या बुढ़वा मंगल तक चलता है। शास्त्रों के अनुसार फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होली के नाम से जाना जाता है। उमंग एवं रंगों के अद्भुत मेल का यह पर्व सामान्यतः 28 फरवरी से 28 मार्च के मध्य होता है। भारतीय ज्योतिष की गणनाओं के आधार पर विक्रम संवत 2068 शाक संवत 1933 ईश्वी सन् 2012 को फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तदानुसार 7 मार्च बुधवार को शास्त्र सम्पन्न होलिका दहन तथा धुलेंडी 8 मार्च मनाई गई।होली के धार्मिक महत्व की जानकारी देते हुए मां शारदा की पवित्र धार्मिक नगरी मैहर स्थित मां शारदा देवी मंदिर प्रबंध समिति के प्रख्यात वास्तु एवं ज्योतिष अलंकार देवज्ञ पं. मोहनलाल द्विवेदी ने बताया कि होली लौकिक व्यवहार में प्रमुख भारतीय त्योहार होने के साथ साधना की दृष्टि से भी विशेष तंत्रोक्त-मंत्रोक्त सिद्धमय महापर्व है।पं. द्विवेदी ने कहा कि यदि होली को पूर्व दिशा की ओर हवा चले तो राजा एवं प्रजा सुखी अर्थात पूरे राज्य में सुख शांति होगी। दक्षिण की ओर हवा चले तो राज्य की सत्ता भंग और शासन पक्ष को परेशानी, पश्चिम दिशा की ओर हवा चले तो तृण एवं सम्पत्ति बढ़ेगी और उत्तर की ओर हवा चले तो धान्य की वृद्धि होगी। यदि होली का धुआं आकाश की ओर सीधा जाए तो राजा का गढ़ टूटेगा और राज्य के बड़े नेताओं की कुर्सी जाएगी। ऐसा माना जाता है। भारत भर में होली और रंगपंचमी उमंग और उत्सव का त्योहार माना जाता है। वहीं आध्यात्मिक दृष्टि से भी इस पर्व का बहुत महत्व है। होली की रात्रि सिद्धिदायक रात्रि मानी जाती है, इस रात्रि में तंत्र-मंत्र एवं साधनाओं का विशेष रूप से रुझान होता है क्योंकि इस रात्रि में सम्पन्न की गई छोटी से छोटी साधना एवं प्रयोग भी जीवन को बदल देने में समक्ष हैं। यह पर्व नई सिद्धियां हासिल करने का उत्तम अवसर है एवं पुरानी सिद्धियों को शक्ति सम्पन्न बनाने का भी।